आज पूरा झारखण्ड अपने 25वें स्थापना दिवस का जश्न मना रहा है। यह वही राज्य है जो 15 नवंबर 2000 को संयुक्त बिहार से अलग होकर बना। यह सिर्फ प्रशासनिक बदलाव नहीं था। यह एक लंबी लड़ाई, संघर्ष और बलिदानों का नतीजा था। इस आंदोलन में आदिवासी और मूलवासी तो थे ही, लेकिन मुसलमानों की भागीदारी भी कम नहीं थी। बड़ी संख्या में लोगों ने प्रदर्शन, आंदोलन, संगठनात्मक काम और कई चरणों में कुर्बानियां देकर अलग राज्य की मांग को मजबूत किया।
इसीलिए 25 साल बाद यह सवाल उठाना जरूरी है कि यह नया राज्य मुस्लिम समाज को क्या दे पाया और क्या देने में अब भी पीछे है।
झारखण्ड राज्य में मुस्लिम समाज को राजनीतिक प्रतिनिधित्व: हक़ से कम हिस्सेदारी मिली है। संयुक्त बिहार की तुलना में झारखण्ड में मुसलमानों को राजनीति में उतनी जगह नहीं मिली, जितनी उन्हें आबादी के हिसाब से मिलनी चाहिए थी। राज्य के 81 विधानसभा क्षेत्रों में कम से कम 12 मुस्लिम उम्मीदवार प्रमुख दलों द्वारा टिकट के योग्य हैं। लेकिन आज तक किसी भी दल ने इस अनुपात को महत्व नहीं दिया। कुछ क्षेत्रों में विधायक बने, कुछ को मंत्री पद भी मिला, और पंचायत स्तर पर आंशिक वृद्धि भी दिखी, लेकिन समग्र तस्वीर अब भी संतोषजनक नहीं है। लोकसभा चुनाव में तो स्थिति और चिंताजनक है। पिछले 25 वर्षों में किसी भी प्रमुख दल ने मुस्लिम उम्मीदवार को लोकसभा में लड़ाने योग्य नहीं समझा। यह अपने आप में एक बड़ी पीड़ा है।
हाँ, कुछ राजनीतिक समीकरणों के कारण एक व्यक्ति को राज्यसभा भेजा गया है, जो सराहनीय है, लेकिन यह प्रतिनिधित्व के मूल सवाल का समाधान नहीं है।
राज्य के निगम, आयोग और अन्य संवैधानिक पदों पर भी मुसलमानों को उनकी आबादी के अनुपात में जगह नहीं मिली।
झारखण्ड अलग राज्य बनने के बाद से मुस्लिम समाज को शिक्षा के क्षेत्र में सब से ज़्यदा नुकसान उठाना पड़ा है। संयुक्त बिहार के समय के लगभग 540 उर्दू स्कूलों को धीरे धीरे अब बंद किए जा रहे हैं या उन्हें हिंदी माध्यम में बदल दिया गया है। जो उर्दू माध्यम के स्कूल आज भी बचे हैं, उनमें समय पर किताबें तक उपलब्ध नहीं हो पातीं। यह हमारी भाषा और पहचान दोनों पर चोट है।
अल्पसंख्यक बहुल इलाकों में इंटर कॉलेजों की भारी कमी है। इसके कारण मैट्रिक के बाद मुस्लिम छात्रों का ड्रापआउट काफी बढ़ा है।
संयुक्त बिहार की तरह झारखण्ड में न UPSC की तैयारी के लिए संस्थान है, न JPSC, न मेडिकल, इंजीनियरिंग या केंद्रीय सेवाओं की मुफ्त कोचिंग व्यवस्था।
बिहार में हज भवन में चल रही मुफ्त कोचिंग से हर साल हजारों बच्चे सरकारी नौकरियां पा रहे हैं।
झारखण्ड में ऐसी कोई व्यवस्था 25 साल बाद भी नहीं बन पाई।
झारखण्ड में अलीम और फाज़िल की डिग्री का संकट गहरा गाया है। JAC द्वारा दी गई मान्यता खत्म कर दी गई। विश्वविद्यालय से परीक्षा कराने की मांग वर्षों से की जा रही है, पर आज तक यह शुरू नहीं हुआ।
इससे हजारों छात्रों का भविष्य अटका है।
बिहार में यह डिग्री विश्वविद्यालय के माध्यम से सुचारू रूप से दी जाती है।
झारखण्ड में मदरसा बोर्ड अब तक नहीं बना है। संयुक्त बिहार में झारखण्ड के लोग मदरसा बोर्ड से बहुत लाभ पाते थे। लेकिन झारखण्ड में 25 साल में आज तक स्थायी मदरसा बोर्ड का गठन तक नहीं हुआ।
कई मदरसे अब भी मान्यता से वंचित हैं।
मान्यता प्राप्त मदरसों में शिक्षकों का वेतन, प्रशिक्षण और आधुनिकीकरण सब अधर में है।
झारखण्ड उर्दू भाषा की स्थिति काफ़ी ख़राब है उर्दू को दूसरी जुबान बनाया गाया लेकीन न अधिकार मिले ओर न लागू हुए। राज्य में दूसरी सरकारी भाषा का दर्जा सिर्फ कागज पर है। उर्दू को दूसरी भाषा घोषित जरूर किया गया, लेकिन दफ्तरों में उर्दू इस्तेमाल नहीं होती,
सरकारी दफ़्तर में उर्दू अनुवादक नहीं हैं, उर्दू शिक्षकों की नियुक्ति नहीं के बराबर है। उर्दू माध्यम के स्कूलों की स्थिति काफी ख़राब है। जिसकी वज़ह से उर्दू जानने वाले लोग अपने अधिकारों से वंचित रह गए। संयुक्त बिहार में अनुमोदित 4401 उर्दू शिक्षकों की पोस्ट जिसमें अभी तक 3712 पद खाली है उसकी बहाली नहीं हो पाई है।
बिहार में उर्दू अकादमी मजबूत और सक्रिय है, लेकिन झारखण्ड में 25 साल बाद भी उर्दू अकादमी का गठन नहीं हो पाया। इस वजह से उर्दू साहित्य, उर्दू कार्यक्रम, उर्दू लेखकों और छात्रों को किसी तरह का संस्थागत समर्थन नहीं मिला।
झारखण्ड बनने के बाद मुस्लिम समाज को आर्थिक क्षेत्र में आबादी के अनुसार हिस्सेदारी नहीं मिली है। रोज़गार का काफ़ी कम अवसर मिला है। झारखण्ड मुसलमान ज्यादातर छोटे व्यापार, कारीगरी, दैनिक मजदूरी या असंगठित क्षेत्र से जुड़े काम करते हैं।
राज्य बनने के बाद भी उनकी आर्थिक स्थिति में बड़ा सुधार नहीं आया। रोजगार के सीमित अवसरों के कारण बड़ी संख्या में युवा दूसरे राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं। झारखण्ड में अब तक पलायन नीति भी नहीं बनी।
सरकारी सामानों की सप्लाई, ठेकों और निर्माण कार्यों में भी समुदाय की उपेक्षा साफ दिखती है।
मुस्लिम बहुल इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाएं की बड़ी कमी है। कई मुस्लिम इलाकों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं भी ठीक से उपलब्ध नहीं हैं। लोगों को इलाज के लिए कई बार सैकड़ों किलोमीटर दूर दूसरे जिलों या राज्यों तक जाना पड़ता है।
वक़्फ़ बोर्ड कई वर्षों तक बिना गठन के पड़ा रहा।
इससे वक़्फ़ संपत्तियां असुरक्षित, बर्बाद और अंडरयूटिलाइज़्ड रहीं। आज भी वक़्फ़ जमीनों पर अतिक्रमण, पारदर्शिता की कमी और विकास की धीमी गति बनी हुई है।
झारखण्ड राज्य में सुरक्षा और सामाजिक समरसता का माहौल ओर भरोसा कमजोर हुआ है। पिछले कई वर्षों में मॉब लिंचिंग की कई घटनाएं हुईं। धार्मिक तनाव और ध्रुवीकरण ने समुदाय में असुरक्षा बढ़ाई है।
मॉब लिंचिंग कानून की मांग कई वर्षों से हो रही है, झारखण्ड विधानसभा में मॉब लिंचिंग क़ानून बनने के बाद भी उसे संसोधित के राजयपाल के पास दुबारा नहीं भेजा गाया है।
राज्य में हज कमेटी का गठन तो हुआ और हज भवन भी बना, लेकिन कमेटी कई बार समय पर पुनर्गठित नहीं हुई
आज भी कमेटी भंग है। रांची से जेद्दा की सीधी फ्लाइट बंद है। तीर्थयात्रियों को वह सुविधा नहीं मिल रही जो मिलनी चाहिए। राज्य सरकार इसे दोबारा शुरू करवाने में सक्रिय दिखाई नहीं दें रही हैं जितना होना चाहिए।
झारखण्ड बनने की लड़ाई में मुसलमानों ने हिस्सा भी लिया और कुर्बानियां भी दीं। लेकिन 25 साल बाद आज यह सवाल खड़ा है कि क्या उन्हें वह सब मिला, जिसका वादा किया गया था या जिसका वे हकदार थे।
कुछ सकारात्मक बदलाव जरूर दिखते हैं, लेकिन बड़ी तस्वीर यही बताती है कि मुसलमानों की हालत में व्यापक सुधार अभी बाकी है। राजनीतिक भागीदारी, शिक्षा, रोजगार, सुरक्षा, भाषा, सांस्कृतिक संस्थान, मदरसा बोर्ड, और उर्दू अकादमी के मामले में उन्हें बिहार जैसी सुविधाएं नहीं मिलीं। राजनीतिक भागीदारी सीमित रही, आर्थिक विकास का लाभ कम मिला, और उर्दू के अधिकार लागू नहीं हुए। और सामाजिक बराबरी इन सभी क्षेत्रों में अभी लंबा रास्ता तय करना है।
अगर झारखण्ड को सच में समावेशी और न्यायपूर्ण राज्य बनना है, तो मुस्लिम समाज को उसकी आबादी, योगदान और जरूरतों के हिसाब से बराबरी का हक मिलना जरूरी है। मेरा मानना है जब तक राज्य के मुस्लिम समाज को उनके आबादी के अनुरूप उनको उनका हक अधिकार नहीं मिल जाता है तब तक अलग राज्य का जश्न उनके लिए बेईमानी है।
धन्यवाद,
तनवीर अहमद
सामाजिक कार्यकर्त्ता

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