करमा पर्व की गीतों से गूंज उठा पूरा ग्राम बरसलोया

 भाई-बहन के प्रेम और प्रकृति को समर्पित पर्व पर पारंपरिक रीति-रिवाजों का किया पालन





जागता झारखंड : कोलेबिरा प्रखंड के ग्राम बरसलोया में अनेक–अनेक जगहों पर भाई-बहन के प्रेम और प्रकृति से जुड़ा करमा पर्व पारंपरिक उल्लास और श्रद्धा के साथ मनाया गया। इस अवसर पर गांव के ऊपर बस्ती, केवट बस्ती (टंगरा टोली), आमटोली, नीचे बस्ती, के अलावा कोई और जगहों में भी किया गया। जिसमे पंडित के रूप में दिलीप पंडा, घनश्याम शुक्ला, लोकेश दास गोस्वामी, द्वारा विधि विधान से पूजा अर्चना करकर पूजा संपन्न किया गया। इस प्रकृति पर्व करमा के शुभ अवसर पर पंडितों पुजारियों द्वारा कहानी भी सुनाया गया। बोले कि: कर्म और धर्म से जुड़ी एक पौराणिक कथा है, जो झारखंड और आसपास के क्षेत्रों में करम पर्व के रूप में मनाई जाती है। यह पर्व भाद्रपद माह की शुक्ल पक्ष एकादशी को मनाया जाता है। और इसमें बहनें अपने भाइयों की लंबी उम्र और परिवार की समृद्धि के लिए उपवास करती हैं. करम पर्व में करम (करम वृक्ष) की डाल की पूजा की जाती है, जो प्रकृति का प्रतीक मानी जाती है और इस पर्व का उद्देश्य अच्छी फसल, सुख-शांति और भाई-बहन के पवित्र रिश्ते का सम्मान करना है। करमा और धरमा नाम के दो भाई थे। करमा ने कर्म की महत्ता बताई और धरमा ने धार्मिक जीवन का मार्ग दिखाया। एक बार अकाल पड़ा उनकी बहन ने तपस्या की, जिससे उनके घर में सुख-समृद्धि आई। इसके बाद अपने मुख ध्वनि से बोले करमा और धरमा ने अपनी बहन की रक्षा के लिए दुश्मनों से अपनी जान की बाजी लगा दी। उनकी इस बहादुरी और त्याग को याद करने के लिए यह पर्व मनाया जाने लगा, जो उनके भाई-बहन के रिश्ते का प्रतीक भी है। और नौ दिनों तक युवतियां नौ प्रकार के बीजों से भरी टोकरी की देखभाल करती हैं। इसके दौरान युवतियों और महिलाओं करमा गीतों और झूमर नृत्य की प्रस्तुति से पूरा गांव सांस्कृतिक रंग में रंग गया। करमा पर्व की शुरुआत में युवतियों ने गांव के पवित्रता का पालन करते हुए जावा उठाव की परंपरा निभायी। इसके बाद पांच प्रकार का अन्न कुरथी, मूंग, घंघरा, चना और जौ को डलिया में बोया गया। इस दौरान युवतियों ने पारंपरिक करमा झूमर नित्य किया। और युवाओं ने मांदर व नगाड़ा बजाकर करम देवता का स्वागत किया। मौके पर कुछ ग्रामीणों ने बताया कि करमा पर्व झारखंड की संस्कृति और प्रकृति से गहरायी से जुड़ा हुआ पर्व है। ग्रामीणों ने इसे सरहुल के बाद झारखंड का दूसरा सबसे बड़ा प्रकृति पर्व बताया। इस अवसर पर कई युवतियां उपस्थित रहीं और परंपरा को जीवंत बनाया!

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