जागता झारखंड : भारत के पूर्वी-मध्य क्षेत्र में स्थित वर्तमान राज्य झारखंड सदियों से अपने प्राकृतिक संसाधनों, घने जंगलों, खनिज भंडार और विविध आदिवासी संस्कृति के कारण एक अलग पहचान रखता है। यह क्षेत्र जो कभी बिहार का हिस्सा था, 15 नवम्बर 2000 को एक अलग राज्य के रूप में अस्तित्व में आया। इसी राज्य के रामगढ़ जिले के गोला प्रखंड के एक छोटे लेकिन सुंदर गाँव नेमरा में 11 जनवरी 1944 को एक बच्चे का जन्म हुआ। शुरू में उसका नाम शिव चरण या शिव लाल मांझी रखा गया लेकिन आगे चलकर समय ने साबित किया कि यही बच्चा न केवल झारखंड की राजनीति का केंद्र बनेगा बल्कि "शिबू सोरेन" के नाम से राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जाना और माना जाएगा।
शिबू सोरेन का बचपन प्रकृति की गोद में बीता। नेमरा गाँव का वातावरण अपने आप में एक अलग आकर्षण रखता था। चारों ओर फैले घने जंगल, हरे-भरे पहाड़, बलखाती नदियाँ, पक्षियों की चहचहाहट और आदिवासियों का सादा जीवन उनकी परवरिश की पृष्ठभूमि थी। सुबह की हल्की धूप में पहाड़ों पर छंटती धुंध और शाम को जंगलों में बिखरती लालिमा उनके कोमल मन पर गहरी छाप छोड़ती थी। खेतों की हरियाली, मिट्टी की खुशबू, बरसात में लहराते पेड़ और बीच-बीच में दिख जाने वाले जंगली जानवर उनके बचपन की यादों का हिस्सा थे।
इस प्राकृतिक और आदिवासी माहौल ने उन्हें शुरू से ही सादगी, साहस और मेहनत का पाठ पढ़ाया। आदिवासी समाज की सामूहिक जीवनशैली ने आपसी रिश्तों का महत्व और दुःख-सुख में साथ निभाने की भावना उनमें विकसित की। गाँव की चौपाल, रात के सन्नाटे में अलाव के चारों ओर बैठकी और बुजुर्गों द्वारा सुनाई गई कहानियाँ उनकी शख्सियत के निर्माण में अहम भूमिका निभाती रहीं। गरीबी और साधनों की कमी के बावजूद, प्रकृति की अपार दौलत ने उनके दिल को विशाल और सोच को व्यापक बनाया। यूँ कहा जा सकता है कि शिबू सोरेन के व्यक्तित्व की नींव जंगलों की शांति, पहाड़ों की ऊँचाई और आदिवासियों के संघर्ष से बनी। यही परवरिश आगे चलकर उनकी राजनीतिक ज़िंदगी में हिम्मत, धैर्य और बलिदान का स्रोत साबित हुई।
पारिवारिक पृष्ठभूमि
शिबू सोरेन झारखंड की राजनीति का एक चमकता सितारा, ऐसे परिवार से संबंध रखते हैं जिसने अपना अधिकांश जीवन जनसेवा, संघर्ष और बलिदान के नाम कर दिया। उनके पिता सोबरन सोरेन एक सच्चे और निःस्वार्थ नेता थे जो गांधीवादी विचारधारा से जुड़े हुए थे। वे महात्मा गांधी की आंदोलन से बेहद प्रभावित थे और आदिवासी हितों के मज़बूत संरक्षक माने जाते थे। महाजनों के अत्याचार और शोषण के खिलाफ वे हर मोर्चे पर सक्रिय रहते। सोबरन सोरेन अपने गाँव और आस-पास की बस्तियों में न केवल एक शिक्षित व्यक्ति के रूप में बल्कि एक न्यायप्रिय, साहसी और ईमानदार शिक्षक और नेता के रूप में जाने जाते थे।
सोबरन सोरेन उन आदिवासी नेताओं में से थे जिन्होंने अपनी जाति की गरिमा, भाषा, संस्कृति और ज़मीन की रक्षा के लिए जीवन समर्पित कर दिया। वे महात्मा गांधी के आंदोलन और अहिंसा के सिद्धांतों से प्रभावित थे लेकिन जब बात आदिवासी जनता के अधिकारों की आती तो वे किसी भी समझौते के पक्षधर नहीं थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में भी योगदान दिया और आज़ादी के बाद भी आदिवासियों के शोषण के विरुद्ध अपना संघर्ष जारी रखा।
उनके अनुसार शिक्षा ही गरीबी, पिछड़ेपन और गुलामी की जंजीरों को तोड़ने की सबसे बड़ी ताक़त थी। इसी कारण उन्होंने अपने बच्चों को शिक्षा से वंचित नहीं रखा बल्कि हर संभव सुविधा दी। उनका विश्वास था कि शिक्षित पीढ़ी ही आदिवासी समाज को सशक्त और आत्मनिर्भर बना सकती है।
सोबरन सोरेन का अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ प्रतिरोध
उस समय झारखंड और बिहार के आदिवासी इलाकों में महाजनी और ज़मींदारी व्यवस्था चरम पर थी। महाजन जो आमतौर पर साहूकार और ज़मींदार वर्ग से आते थे, आदिवासी किसानों को मामूली कर्ज़ देकर उनकी ज़मीन, मेहनत और इज़्ज़त सब कुछ छीन लेते थे। सोबरम सोरेन ने इस शोषणकारी व्यवस्था को खुली चुनौती दी। वे खेत मजदूरों, किसानों और साधारण आदिवासियों को अत्याचार के खिलाफ आवाज़ उठाने के लिए प्रेरित करते, उन्हें संगठित करते और उनमें जागरूकता पैदा करते। यह सब गतिविधियाँ महाजन वर्ग को बेहद नागवार गुजरती थीं क्योंकि उनके स्वार्थ सीधे तौर पर प्रभावित हो रहे थे। यही कारण था कि धीरे-धीरे सोबरन सोरेन उनके लिए सबसे बड़ी बाधा बन गए और उन्हें रास्ते से हटाने की साज़िशें रची जाने लगीं।
दर्दनाक हादसा
ज़िंदगी शांति से गुजर रही थी कि 27 नवम्बर 1957 का दिन आ गया—एक ऐसा दिन जिसने शिबू सोरेन की ज़िंदगी का रास्ता हमेशा के लिए बदल दिया। उस दिन जब वे हॉस्टल में पढ़ाई कर रहे थे, अचानक ख़बर मिली कि महाजनों ने उनके पिता सोबरन सोरेन की बेरहमी से हत्या कर दी है। यह सुनकर उन पर मानो पहाड़ टूट पड़ा।
सोबरन सोरेन उस दिन अपने करीबी साथी जय राम मांझी के साथ बरलंगा स्टेशन जा रहे थे ताकि किसी दूर जगह की ट्रेन पकड़ सकें। बरलंगा पहुँचने के लिए उन्हें नरसिंग डीह और सतरपुर गाँव के रास्ते से गुजरना था। दुश्मन पहले से घात लगाए बैठे थे। जैसे ही वे टांड़ के पास पहुँचे, महाजनों की हथियारबंद टोली ने हमला कर दिया। सोबरन सोरेन मौके पर ही शहीद हो गए जबकि जय राम मांझी गंभीर रूप से घायल होकर वहीं छूट गए। महाजनों का मक़सद सिर्फ हत्या करना नहीं था बल्कि आदिवासी जनता को डराने और दबाव डालने का था ताकि उन्हें यह संदेश मिले कि अगर कोई भी इस व्यवस्था को चुनौती देगा तो उसका अंजाम भी यही होगा।
यह घटना किशोर शिबू सोरेन के लिए जीवन का सबसे बड़ा सदमा थी। उन्होंने न केवल अपने पिता को खोया बल्कि उस नेता को भी खो बैठे जो उनके लिए प्रेरणा थे। लेकिन इस त्रासदी ने उनके दिल में एक नई आग जगा दी—अपने पिता के अधूरे मिशन को पूरा करने और आदिवासी जनता के अधिकारों के लिए लड़ने की आग।
शुरुआत में किसी को समझ नहीं आया कि सोबरन सोरेन का खून क्यों बहाया गया, लेकिन धीरे-धीरे समय ने राज़ खोल दिया कि इसके पीछे केवल उनकी क्रांतिकारी सोच और अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ उनका संघर्ष ही कारण था। इस दिल दहला देने वाले हादसे का एकमात्र चश्मदीद गवाह जय राम मांझी थे जो इस खूनखराबे का एकमात्र जीवित गवाह बने।
समय के साथ यह राज़ सबके सामने आ गया कि यह खूनखराबा दरअसल बरलंगा के महाजनों की साज़िश थी। जांच और गवाहियों ने साबित कर दिया कि इस हत्याकांड के पीछे बरलंगा के बिस्टू साव के परिजन—हरी भजन साव और फेंकन साव—ही जिम्मेदार थे, जिनके हाथ इस खून में रंगे हुए थे।
परिवार और शिक्षा
सोबरन सोरेन की पत्नी का नाम सोना मांझी था। वे बेहद सरल स्वभाव, साफगोई और घरेलू प्रकृति की महिला थीं जो अपने घर को धैर्य और प्रेम से संभालती रहीं।
सोबरन सोरेन के पाँच बेटे और दो बेटियाँ थीं। बेटों के नाम थे:
1. राजा राम सोरेन
2. शिबू सोरेन
3. शंकर सोरेन
4. लालू सोरेन
5. रामू सोरेन
शिबू सोरेन की प्रारंभिक शिक्षा नेमरा गाँव के प्राथमिक विद्यालय से हुई। उस समय जब ज़्यादातर आदिवासी परिवार बच्चे को खेतों और मज़दूरी में लगा देते थे, सोबरन सोरेन ने अपने बच्चों को स्कूल भेजा। शिबू ने यहाँ पाँचवीं कक्षा तक पढ़ाई की।आगे की पढ़ाई के लिए उन्हें गोला जाना पड़ा, जो उस समय भी प्रखंड मुख्यालय था। वहाँ सरकारी हाई स्कूल में उन्होंने प्रवेश लिया। गाँव से स्कूल की दूरी ज़्यादा होने के कारण रोज़ आना-जाना संभव नहीं था इसलिए वे एक आदिवासी हॉस्टल में रहने लगे। हॉस्टल का जीवन सख़्त लेकिन सादा था—सादा खाना, पढ़ाई का तय समय और रात को जल्दी सोना। शिबू ने इस माहौल में मन लगाकर पढ़ाई की। छुट्टियों में जब वे गाँव लौटते तो अपने पिता के साथ बैठकर किसानों, मज़दूरों और गाँव की समस्याओं पर चर्चा करते। इस तरह बचपन से ही उनमें सामाजिक चेतना विकसित होने लगी।
लेकिन जब पिता की मृत्यु हुई, तब उनकी उम्र मात्र तेरह साल थी। यह सदमा उनके दिल पर ऐसे गहरे घाव की तरह अंकित हो गया जो जीवनभर की पीड़ा बन गया। पढ़ाई में मन नहीं लगा, आँखों की चमक फीकी पड़ गई और एक गहरी चुप्पी उनके दिल पर छा गई। यह चुप्पी बाहर से शांति जैसी थी लेकिन अंदर ही अंदर एक जलती हुई चिंगारी मौजूद थी।
इन्हीं दिनों उनके पिता के एक नज़दीकी मित्र ने उनकी हालत देखकर उन्हें कुछ समय अपने पास रखा ताकि उनका दुख कम हो सके और मन हल्का हो जाए लेकिन तमाम कोशिशों के बावजूद भी शिबू का मन दोबारा किताबों में नहीं लग सका।
शादी और परिवार
वर्ष 1963 में मात्र 19 साल की उम्र में, शिबू सोरेन ने चांडिल के एक सम्मानित परिवार की लड़की रूपी किस्कू से विवाह किया। इस रिश्ते से उन्हें चार संतानें मिलीं—तीन बेटे और एक बेटी।
स्व• दुर्गा सोरेन – बड़े बेटे की यात्रा और उनका निधन
शिबू सोरेन के बड़े बेटे दुर्गा सोरेन का जन्म 10 सितम्बर 1970 को नेमरा, जिला रामगढ़ में हुआ। वे झारखंड मुक्ति मोर्चा के सक्रिय नेता थे और 2000 से 2009 तक लगातार जामा विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे। लेकिन 21 मई 2009 का दिन परिवार के लिए एक दुखभरी याद बन गया। उस रात वे बोकारो में अपने घर पर थे। खाना खाने के बाद सब लोग सो गए, मगर सुबह जब उनकी माँ रूपी सोरेन ने बेटे को आवाज़ दी तो कोई जवाब नहीं मिला। कई बार पुकारने के बाद जब वे कमरे में गईं तो देखा कि दुर्गा सोरेन इस दुनिया को अलविदा कह चुके हैं। घर में चीख-पुकार मच गई। उस समय शिबू सोरेन दिल्ली में थे जिन्हें तुरंत सूचना दी गई और वे आपातकालीन उड़ान से बोकारो पहुँचे। बेटे की मौत उनके लिए ऐसा ज़ख्म बन गई जो ज़िंदगी भर नहीं भर सका।
दुर्गा सोरेन के निधन के बाद उनकी राजनीतिक विरासत उनकी पत्नी सीता सोरेन ने संभाली। उन्होंने 2009 में जामा से विधानसभा चुनाव जीता, फिर 2014 और 2019 में भी इसी क्षेत्र से जीत हासिल की। उन्हें झारखंड मुक्ति मोर्चा का राष्ट्रीय महासचिव भी बनाया गया। लेकिन 19 मार्च 2024 को उन्होंने सभी पार्टी पदों से इस्तीफ़ा देकर भारतीय जनता पार्टी में शामिल होने का फ़ैसला किया।
सीता सोरेन के तीन बच्चे हैं: जयश्री, राजश्री , विजयश्री
हेमंत सोरेन – वर्तमान मुख्यमंत्री
शिबू सोरेन के दूसरे बेटे हेमंत सोरेन का जन्म 10 अगस्त 1975 को रामगढ़ ज़िले के नेमरा गाँव में हुआ। बचपन से ही वे अपने पिता की राजनीतिक जिद्दोजहद और जनआंदोलनों के क़रीब रहे, जिसने उन्हें राजनीति में आने की प्रेरणा दी। उन्होंने सक्रिय राजनीति की शुरुआत झारखंड मुक्ति मोर्चा के मंच से की और 24 जून 2009 को वे राज्यसभा के सदस्य चुने गए, जहाँ उन्होंने 7 जुलाई 2010 तक सेवाएँ दीं।
हेमंत सोरेन पहली बार 13 जुलाई 2013 को झारखंड के मुख्यमंत्री बने और 23 दिसम्बर 2014 तक इस पद पर रहे। इसके बाद कुछ समय तक विपक्ष में रहने के बाद वे एक बार फिर जनता के समर्थन से उभरे। 2019 के विधानसभा चुनाव में झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल के गठबंधन ने बहुमत हासिल किया। 29 दिसम्बर 2019 को हेमंत सोरेन ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली और अपने सहयोगी नेताओं आलमगीर आलम, रामेश्वर उरांव और राजद विधायक सत्यनंद भोक्ता के साथ सरकार बनाई। इस कार्यकाल में उन्होंने जनता की समस्याओं को दूर करने के लिए कई महत्वपूर्ण फैसले किए और सामाजिक बुराइयों के खिलाफ आवाज़ उठाई। एक अवसर पर उन्होंने राज्य के लोगों से अपील की कि वे अपने गाँवों में शराब की दुकानों को खोलने की अनुमति न दें और विशेष रूप से महिला संगठनों को इस बुराई के खिलाफ आगे आने के लिए प्रेरित किया।
उनकी लोकप्रियता और विकास कार्यों की सराहना करते हुए उन्हें दमका और बरहेट विधानसभा क्षेत्रों में उत्कृष्ट प्रदर्शन पर “चैम्पियंस ऑफ चेंज अवॉर्ड” से सम्मानित किया गया। यह सम्मान उन्हें 20 जनवरी 2020 को दिल्ली के विज्ञान भवन में भारत के पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी द्वारा प्रदान किया गया।
हालाँकि, उनकी राजनीतिक यात्रा कठिनाइयों से भी खाली नहीं रही। ज़मीन घोटाले और खनन पट्टे के विवाद ने उनके कैरियर को झटका दिया। चुनाव आयोग ने राज्यपाल को अपनी रिपोर्ट में उनकी सदस्यता पर सवाल उठाए और अंततः 31 जनवरी 2024 को प्रवर्तन निदेशालय (ED) ने उन्हें ज़मीन घोटाले के आरोप में गिरफ्तार कर लिया। गिरफ्तारी के बाद उन्होंने राज्यपाल सी. पी. राधाकृष्णन को इस्तीफ़ा सौंपा और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेता चम्पई सोरेन ने मुख्यमंत्री पद संभाला।
इस कठिन समय में हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन ने अहम भूमिका निभाई। उन्होंने न केवल पार्टी को संभाला बल्कि कई जनसभाओं, रैलियों और आंदोलनों में सक्रिय रूप से भाग लिया। कल्पना सोरेन ने 2024 के उपचुनाव में गांडे विधानसभा क्षेत्र से जीत दर्ज की और अपनी राजनीतिक मौजूदगी साबित की। इस तरह वे अपने पति के साथ कंधे से कंधा मिलाकर पार्टी और जनता की सेवा में लगी हुई हैं।
हेमंत सोरेन को 6 जुलाई 2024 को फिर से मुख्यमंत्री पद मिला लेकिन 24 नवम्बर 2024 को उनका कार्यकाल समाप्त हो गया। इसके बावजूद, जनसमर्थन और राजनीतिक प्रभाव के कारण वे एक बार फिर मुख्यमंत्री बने और यह उनका चौथा कार्यकाल है। आज वे झारखंड के सबसे लोकप्रिय नेताओं में गिने जाते हैं और जनता की सेवा के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहे हैं।
व्यक्तिगत जीवन में हेमंत सोरेन सुखद पारिवारिक जीवन जी रहे हैं। उनकी पत्नी कल्पना सोरेन आज राजनीति में एक सक्रिय शख्सियत हैं। उनके दो बेटे हैं । बड़े बेटे विश्वजीत एच. सोरेन, जो अपनी आयु में झारखंड राज्य स्तर पर शतरंज खिलाड़ी हैं और छोटे बेटे नितिन सोरेन भी राज्य स्तर पर बास्केटबॉल में अपनी पहचान बना रहे हैं।
इस प्रकार हेमंत सोरेन का जीवन जनसंघर्ष, राजनीतिक उतार-चढ़ाव, पारिवारिक सहयोग और व्यक्तिगत सफलताओं का एक सुंदर संगम है। वे न केवल शिबू सोरेन की राजनीतिक विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी हैं बल्कि झारखंड की राजनीति का एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली नाम भी हैं।
बसंत सोरेन – तीसरे बेटे की भूमिका
शिबू सोरेन के तीसरे और सबसे छोटे बेटे बसंत सोरेन का जन्म 1 सितम्बर 1977 को नेमरा में हुआ। बचपन से ही उन्हें जनसमस्याओं में गहरी रुचि थी और पिता व भाई की राजनीतिक जिद्दोजहद से प्रेरित होकर उन्होंने भी सक्रिय राजनीति में कदम रखा। उनका राजनीतिक सफर वर्ष 2008 से शुरू हुआ जब वे झारखंड मुक्ति मोर्चा की युवा इकाई (यूथ विंग) के अध्यक्ष बने। युवाओं से गहरे जुड़ाव और पार्टी के प्रति मेहनत ने उन्हें एक उभरता हुआ नेता बना दिया।
साल 2016 में उन्होंने राज्यसभा चुनाव लड़ा, हालांकि जीत नहीं सके। यह असफलता उनके लिए निराशा का कारण नहीं बनी बल्कि अनुभव का स्रोत साबित हुई। उन्होंने मेहनत जारी रखी और 2020 में दुमका विधानसभा उपचुनाव में उतरे। इस बार जनता ने उन पर भरोसा जताया और वे विधायक चुने गए। इस तरह उनके राजनीतिक जीवन का नया अध्याय शुरू हुआ और वे अपने क्षेत्र की जनता के बीच तेजी से लोकप्रिय हो गए।
उनकी सेवाओं और कार्यों को देखते हुए 2024 में झारखंड सरकार ने उन्हें कैबिनेट में शामिल किया और दो अहम मंत्रालयों – सड़क एवं निर्माण विभाग और जल संसाधन विभाग – की जिम्मेदारी सौंपी। मंत्रालय मिलने के बाद उन्होंने राज्य में बुनियादी ढांचे के विकास, सड़कों की मरम्मत व निर्माण तथा जल संसाधनों के बेहतर प्रबंधन के लिए कई ठोस कदम उठाए। उनके कार्यों ने उन्हें एक सक्रिय और जनहितैषी नेता के रूप में पहचान दिलाई।
बसंत सोरेन का निजी जीवन भी संतुलित और खुशहाल है। उनकी पत्नी का नाम हेमलता सोरेन है जो सरल स्वभाव और शिक्षित महिला हैं। उनकी दो बेटियां हैं – बड़ी बेटी तनी सोरेन और छोटी बेटी तारा सोरेन। दोनों ही शिक्षा व चरित्र में उत्कृष्ट हैं और परिवार की परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं। एक ओर बसंत सोरेन जनता की सेवा और राजनीतिक दायित्व निभा रहे हैं तो दूसरी ओर एक स्नेही पिता और अच्छे पति की भूमिका भी बखूबी अदा कर रहे हैं।
यूं बसंत सोरेन ने केवल पिता शिबू सोरेन और भाई हेमंत सोरेन की राजनीतिक विरासत को आगे नहीं बढ़ाया बल्कि अपनी लगन, जनसेवा और दृढ़ता से अलग पहचान भी बनाई। आज वे झारखंड के उभरते हुए नेताओं में गिने जाते हैं और अपने मंत्रालयों के माध्यम से राज्य के विकास में अहम योगदान दे रहे हैं।
अंजनी सोरेन – बेटी का राजनीतिक संघर्ष
शिबू सोरेन की बेटी अंजनी सोरेन का जन्म 1 जनवरी 1972 को नेमरा गाँव, जिला रामगढ़ में हुआ। घर का राजनीतिक माहौल और जनसंघर्ष से भरा परिवेश शुरू से ही उनके साथ रहा लेकिन उन्होंने हमेशा अपनी अलग पहचान बनाने की कोशिश की। मज़बूत राजनीतिक विरासत के बावजूद अंजनी सोरेन ने केवल पिता और भाइयों के साये में संतुष्ट रहने के बजाय अपनी योग्यता और साहस से खुद को साबित करने की राह चुनी। उन्होंने कई बार चुनावी मैदान में कदम रखा। उनकी सबसे उल्लेखनीय कोशिश 2024 में रही जब उन्होंने ओडिशा के मयूरभंज लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा। हालांकि उन्हें इस चुनाव में जीत नहीं मिली लेकिन इस हार ने उनके हौसले को कमजोर नहीं किया। वे इसे रुकावट न मानकर नए सफर की शुरुआत मानती हैं और आज भी सक्रिय राजनीति में भूमिका निभा रही हैं।
अंजनी सोरेन का यह संघर्ष बताता है कि वे केवल परिवार की पहचान पर निर्भर नहीं हैं बल्कि अपनी मेहनत, लगन और क्षमता के बल पर जनता की सेवा करना चाहती हैं।
सोरेन परिवार – एक राजनीतिक विरासत
शिबू सोरेन का परिवार झारखंड की राजनीति का एक मजबूत स्तंभ माना जाता है। इस घराने ने जनसेवा, राजनीतिक दृढ़ता और बलिदान की ऐसी गाथा लिखी है जो राज्य के इतिहास में स्वर्ण अक्षरों से दर्ज होगी। परिवार के बुज़ुर्ग सोबरन सोरेन के गांधीवादी विचारों और उनकी जनता-निष्ठा ने जो नींव रखी थी, उसी पर शिबू सोरेन ने अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। आज यही परंपरा उनके बेटे हेमंत सोरेन और बसंत सोरेन अपनी-अपनी नेतृत्व क्षमता और जनता की सेवा के जज़्बे के साथ आगे बढ़ा रहे हैं। वहीं बेटी अंजनी सोरेन भी अपनी राजनीतिक जिद्दोजहद के जरिए इस परंपरा का अहम हिस्सा हैं।इस तरह सोरेन परिवार झारखंड की राजनीति में एक ऐसी मिसाल है जो न केवल नेतृत्व और जनसेवा का प्रतीक है बल्कि बलिदान और अटूट संघर्ष की कहानी भी अपने साथ लिए हुए है। यह परिवार आज भी राज्य के भविष्य और जनता की भलाई के लिए सक्रिय है और इसकी जिद्दोजहद आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनेगी।
डॉ• अशरफ अली
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